दिशाभ्रम
मैं अच्छा-भला चल रही थी।
मैं अच्छा-भला चल रही थी।
सहज गति से, उन्मुक्त रूप से,
गाते हुये, प्रकृति का आनन्द लेते हुये,
गन्तव्य यद्यपि बहुत स्पष्ट न था,
पर दिशाज्ञान अब भी शेष था।
कर्म के प्रति था सुख-सन्तोष,
मन-बुद्धि पर था सम्यक नियन्त्रण।
सहसा मैंने पाया कि
पता नहीं कब से
मेरे समकक्ष ही
कुछ लोग दॊड़ रहे थे ।
और न जाने क्यॊं
स्वयं कॊ उनके साथ
प्रतियोगिता में खड़ा कर,
मैं भी उनके साथ ही
दौड़ने लगी ।
गन्तव्य तो पहले से ही
स्पष्ट न था, और अब
दिशाहारा होकर,
मन, बुद्धि,सुख, सन्तोष
सभी धीरे-धीरे विदा लेने लगे।
और बच रहे मात्र
दिग्भ्रमित दो पैर,
और उनकी अनवरत गति।
कितनी खूबसूरती से आपने जीवन का सच बयान कर दिया. बिना किसी शब्द आडम्बर के कितना कुछ उकेरा पल मे.
ReplyDeleteबहुत खूब
जीवन का यह सत्य है अच्छा किया बखान।
ReplyDeleteजाग्रत होकर जी सकें तभी दिशा का ज्ञान।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
बहुत गहरी सोच!!
ReplyDeleteजीवन की आपाधापी में दिशाशून्य होने का बढ़िया शब्द चित्रण.
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