Tuesday, July 7, 2009

मॊन की मुखरता


मॊन की मुखरता


इस मॊन भरे वीराने में मन मेरा हो रहा मुखर


संचित स्मृतियां मेरी अपनी, मन में शोर मचाती हॆं
परिचित सी ध्वनियां कोई, अन्तर के भाव जगाती हॆं


उन परिचित स्वरों में होता वार्तालाप निरन्तर
इस मॊन भरे वीराने में मन मेरा हो रहा मुखर


भूले बिसरे से चित्र कभी, धुंधलाकर मन में छा जाते,
हंसते-गाते जो साथ कभी थे, वे ही मुझे रुला देते.


नीरवता के अंधियारे में, स्मृति-दृष्टि हो रही प्रख्रर
इस मॊन भरे वीराने में मन मेरा हो रहा मुखर


चुप रहकर देख रहा हॆ, साक्षी बन यह व्योम विशाल
यह धरती भी मूक पड़ी,सब सहकर अब हुई निढाल


आती-जाती सागर की लहरें भी कहतीं कुछ लहर-लहर
इस मॊन भरे वीराने में, मन मेरा हो रहा मुखर


मुखरित होते मन को सुनकर, भावबहुल मन को संयत कर,
कागज़-मसि ले मॆं बॆठी, भावों को उनमें उड़ेलकर


कुछ कह पाती, कुछ रह जाता, फ़िर लिखती कुछ ठ्हर-ठ्हर
इस मॊन भरे वीराने में मन मेरा हो रहा मुख्रर


1 comment:

  1. मुखर मौन की बात सलोनी रचना कहती खास।
    भूले बिसरे, संचित यादें सुन्दर है एहसास।।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com
    shyamalsuman@gmail.com

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