Sunday, July 12, 2009

दिशाभ्रम

दिशाभ्रम

मैं अच्छा-भला चल रही थी।

सहज गति से, उन्मुक्त रूप से,

गाते हुये, प्रकृति का आनन्द लेते हुये,


गन्तव्य यद्यपि बहुत स्पष्ट न था,

पर दिशाज्ञान अब भी शेष था।

कर्म के प्रति था सुख-सन्तोष,

मन-बुद्धि पर था सम्यक नियन्त्रण।


सहसा मैंने पाया कि

पता नहीं कब से

मेरे समकक्ष ही

कुछ लोग दॊड़ रहे थे ।

और न जाने क्यॊं

स्वयं कॊ उनके साथ

प्रतियोगिता में खड़ा कर,

मैं भी उनके साथ ही

दौड़ने लगी ।


गन्तव्य तो पहले से ही

स्पष्ट न था, और अब

दिशाहारा होकर,

मन, बुद्धि,सुख, सन्तोष

सभी धीरे-धीरे विदा लेने लगे।


और बच रहे मात्र

दिग्भ्रमित दो पैर,

और उनकी अनवरत गति।

4 comments:

  1. कितनी खूबसूरती से आपने जीवन का सच बयान कर दिया. बिना किसी शब्द आडम्बर के कितना कुछ उकेरा पल मे.
    बहुत खूब

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  2. जीवन का यह सत्य है अच्छा किया बखान।
    जाग्रत होकर जी सकें तभी दिशा का ज्ञान।।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com
    shyamalsuman@gmail.com

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  3. बहुत गहरी सोच!!

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  4. जीवन की आपाधापी में दिशाशून्य होने का बढ़िया शब्द चित्रण.

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