Friday, July 17, 2009

आत्मबोध - आशा बर्मन




जीवन की राहों में बहुत-कुछ
मुझे अनजाने, अनचाहे,
अनायास ही मिल गया।

पर उस मिलने के महत्व को
मैनें समझा ही कहां ?

और समझती भी कैसे?
क्यॊंकि उस ओर मेरा
ध्यान ही कहां था?

मेरा सारा ध्यान तो

उसी ओर केन्द्रित रहा,
जो मैंने बार-बार चाहा
पर मुझे न मिल सका।


पूरी आत्मशक्ति लगाकर
मैंने अपना सारा ध्यान
उसी ओर रखा, जो अभीतक
मुझे नहीं मिल सका था ।

उसी को लेकर स्वयं को

दीन-हीन और दुखी समझा,
तब अपनी उपलब्धियों को
देखने का अवकाश कहां था?

दीनता-हीनता का वह

निराधार भ्रमजाल टूटा,
तो सत्य की किरणों का
प्रकाश सा फ़ूटा ।

सहसा मैं विमूढ सी,
कृतज्ञता से भरी उसके प्रति
जिसकी कृपा से मुझे
वह सब था मिला,
जिसके मिलने का बोध
अबतक मुझे नहीं था।

अब तो मन था शान्त,
उसमें कोई रोष न था ।

Wednesday, July 15, 2009

भाव मंजूषा - आशा बर्मन



निज भावों का पार न पाती।


मेरे भावों की सरिता से
सारी जगती ही भर जाती।
निज भावों का पार न पाती।


अन्तर में सुख दुख के निर्झर,
झर-झर झरतें रहें निरन्तर,
हाथ धरूँ जब तक मैं उन पर,
लुप्त हुए, वे रूप बदल कर,


इस आँख मिचौली में ही
सारी साँझ बीत है जाती।
निज भावों का पार न पाती।


भाषा में शब्द हैं सीमित,
शब्दज्ञान मेरा है परिमित
जिन भावों के रूप स्पष्टतम,
उनको ही कह पाती किंचित।


भाव कर सके जो हृदयंगम,
ऐसा कोई बिरला साथी
निज भावों का पार न पाती।


मन का मीत यदि मिल जाए,
उर की कली-कली खिल जाए,
कोई तो समझेगा मुझको,
इस आशा का दीप जलाए,


भाव-भरी मंजूषा मेरी,
सौंप चलूँ उसको यह थाती
निज भावों का पार न पाती।

Tuesday, July 14, 2009

समय का वरदान- आशा बर्मन

समय का वरदान!
बदल जाता समय-संग ही प्यार का प्रतिमान ।
समय का वरदान!

साथ था उनका अजाना, वह समय कितना सुहाना।
एक अनजाने से पथ पर, युव पगों का संग उठ्ना।।

कुछ झिझक, कुछ पुलक थी, एक सिहरन हृदयगत थी,
जागती आँखों में सपने, मन का हर पल गुनगुनाना।

प्यार की लम्बी डगर का, प्रथम ही सोपान,
समय का वरदान!

इन्द्रधनुषी सपन सुन्दर, पर तभी बदलाव आया।
भावपूरित मन वही था, किन्तु इक ठहराव आया।।

मन्द था आवेग, अपनी श्वास में, प्रश्वास में।
आस्था भी गहनतर, अब प्रेम में, विश्वास में॥

था अनोखा नहीं कुछ, बस भाव दान-प्रदान,
समय का वरदान!

समय बीता साथ कितना, संग सुख-दुख हैं सहे।
सच यही हम समझ जाते, दूसरे की बिन कहे।।

जान लेना हाँ उनकी, देखकर मुस्कान किंचित,
समझ लेना ना को भी बस, देखकर भ्रू-भंग कुंचित।।

प्रेम– गरिमा भरे मन में शांति और विश्राम।
समय का वरदान!

Sunday, July 12, 2009

जागृति

जागृति

जितना मैं झुकती हूं,
उतना झुकाते हो।
जितना चुप रहती हूं,
उतना ही सुनाते हो ।।

लचीली कोमल टहनी सी
झुकना मुझे आता है।
चंचल, गतिशील, पर
रुकना मुझे आता है।।

दबाव का प्रभाव, यदि
जरुरत से ज्यादा हुआ,
सूखी टहनी सी मैं
टूट बिखर जाऊंगी ।

आत्मबल और विश्वास
होने के उपरान्त भी,
तुम्हारे ही तो क्या
किसी के काम न आऊंगी।।

बात समानता कि तो
सभी कर लेते हैं,
समानता का अधिकार
फ़िर भी क्या देते हैं?

पति परमेश्वर की तो
बात अब पुरानी है,
आधुनिक युग में तो
बिल्कुल बेमानी है।


सदियों पे सदियां
दासता में बीत गयीं,
उसके पश्चात अब
ताजी हवा आयी है।

नारियों का जागरण
देश-देश हो रहा,
यह जागॄति कुछॆक
अधिकार ले आई है।

इस परिवर्तन से
नवजीवन मिलेगा,
हमारे व्यक्तित्व का
नवप्रदीप जलेगा ।

होगा घर-आंगन
तुम्हारा है ज्योतिर्मय,
जीर्ण-शीर्ण परम्परा
का प्रचीर ढ्हेगा ।।

दिशाभ्रम

दिशाभ्रम

मैं अच्छा-भला चल रही थी।

सहज गति से, उन्मुक्त रूप से,

गाते हुये, प्रकृति का आनन्द लेते हुये,


गन्तव्य यद्यपि बहुत स्पष्ट न था,

पर दिशाज्ञान अब भी शेष था।

कर्म के प्रति था सुख-सन्तोष,

मन-बुद्धि पर था सम्यक नियन्त्रण।


सहसा मैंने पाया कि

पता नहीं कब से

मेरे समकक्ष ही

कुछ लोग दॊड़ रहे थे ।

और न जाने क्यॊं

स्वयं कॊ उनके साथ

प्रतियोगिता में खड़ा कर,

मैं भी उनके साथ ही

दौड़ने लगी ।


गन्तव्य तो पहले से ही

स्पष्ट न था, और अब

दिशाहारा होकर,

मन, बुद्धि,सुख, सन्तोष

सभी धीरे-धीरे विदा लेने लगे।


और बच रहे मात्र

दिग्भ्रमित दो पैर,

और उनकी अनवरत गति।

Friday, July 10, 2009

वे पत्र

वे पत्र




शाम के थके-हारे,
मेलबाक्स की ओर बढ्ते पग
सहसा रुक जाते हैं

इसलिये नहीं कि उसमें
लिफ़ाफ़े नहीं हैं
बल्कि इसलिये कि

उनमें अनचाहे बिल हैं,
सांस्कृतिक सूचनायें हैं,
’सेल’ के विविध कागज भी हैं
केवल वे नीले लिफ़ाफ़े ही नहीं,
जिन्हें देख्नने को मेरी आंखें
तरस गयी हैं


मां के लिखे वे नीले अन्तर्देशीय पत्र
जिनमें होता था विस्तृत वर्णन
किसी का जन्म, किसी का मुंड्न,
किसी का विवाह, किसी का उपनयन,

जिनमें अक्षर व शब्द ही नहीं,
गन्ध थी स्वदेश की,
अल्पसमय को ही सही,
भुला देती दूरी विदेश की


वे पत्र, जिनमें
अबतक न आने की थी
प्यार भरी फ़ट्कार
जिनको पढ्कर भी पढा है
कई-कई बार क्योंकि
दृष्टि की तरलता करती
धूमिल पत्र का प्रवाह

वे पत्र, जॊ स्वयं हो जाते शेष,
बहुत-कुछ कहना-सुनना
फ़िर भी रह जाता अशेष


वे पत्र, जिन्होनें मुझे
दूर रहते हुये भी
सगे-सम्बन्धियों से,
पास-पड़ोसियों से,
संबन्धों की अनेक कड़ियों में
बांध रखा था


वे कड़ियां अब गयीं हैं बिखर,
पत्रॊं की प्रतीक्षा हो रही क्षीणतर,
अब मुझे उन्हीं उपेक्षित
पत्रों के पुलिन्दों को उठाना है,
बिलों का भुगतान करके
’सेल’ के कागजों से ही
दिल बहलाना है

दादाजी


दादा जी

स्मृति के तारों की झंकार के तीव्र स्वरों में एक स्वर अत्यन्त स्पष्टता से मुखरित हो रहा है। वह स्वर अत्यन्त पुराना तो है पर चितपरिचित भी । वह स्वर है दादाजी का। दादाजी के लिये मेरे मन में आरम्भ से ही अत्यन्त श्रद्धा रही है। इसलिये नहीं, कि वे कोई महान ज्ञानी थे, समाजसेवी थे या समाज में किसी उच्च पद पर आसीन थे वरन इसलिये कि हमारे दादाजी के व्यक्तित्व के रेशे-रेशे में, उनके हृदय के कण-कण में मात्र एक ही वस्तु थी- प्यार। सरल निश्छल प्यार, ऐसा प्यार जो गंगा की तरह सबके लिये समान रूप से प्रवाहित हुआ । ऐसा प्यार, जो आसमान की तरह सबके लिये छाया, ऐसा प्यार जिसने धरती की तरह सबको सहारा दिया, जिस प्यार में छोटे-बड़े, अपने पराये धनी-निर्धन का कोई भेद-भाव न था ।

अपने मनस्तल के एलबम के पुराने बदरंग हुये चित्रों को मैं अपनी स्मरणशक्ति से गहराने का प्रयास करती हूँ। कई चित्र मेरे सम्मुख आते हैं। बचपन में याद है पास-पड़ोस के घरों मे कई वृद्ध वृद्धायें, प्रातकाल स्नान-ध्यान करके जय जगदीश हरे की स्वरभेदी आरती के पश्चात, अपने इष्टदेव को भोग लगाकर ही सुबह का भोजन करते थे। हमारे दादाजी का इष्टदेव को भोग लगाने का तरीका सबसे पृथक था। नहा-धोकर जब सुबह वे खाने बैठते तो ताली बजाकर बड़े मधुर स्वर में बच्चों आवाज देते- "जिन्ने जिन्ने खाना है, आ जाओ।" पता नहीं क्या था उस स्वर में, हम बच्चे जो अपनी माँ के अनेक मनुहार करने पर भी ठीक से नहीं खाते, दादाजी की उस पुकार को सुनते ही सबकुछ छोड़ के,गिरते पड़ते उनके कमरे की ओर दोड़ते जैसे शायद कृष्ण की वंशी को सुनकर गोपियाँ दोड़ती होंगीं। दादाजी भी सभी बच्चों को भोग लगाकर खाना खाते। बच्चे भी खुश और दादाजी भी, ऐसे होता था हमारे घर में दिन का आरम्भ ।

छुट्टी के दिन दादाजी बच्चों को पार्क ले जाते। पड़ोस के बच्चे भी हाथ हो लेते, कोई उनकी अंगुली पकड़े, कोई गोद में और कोई कंधों पर सवार होकर। घर लौटते समय यथाशक्ति बच्चों की फरमाइश पूरी करते जाते । घर पहुँचने पर पड़ोस के कुछ गरीब बच्चों का समूह हमारे पास आता, और इससे पहले कि वे कुछ माँगें, दादाजी स्वयं ही बचे हुये पैसे उनमें बाँट देते। इस समय वे बिल्कुल ही भूल जाते कि कुछ ही देर बाद जब दादी उनसे पैसे का हिसाब माँगेगी, तो वे क्या जबाब देगें?

दादी के नाम से एक और बात याद आयी। जैसे यहाँ विदेश में लोग प्यार से अपनी पत्नी को ’हनी’ और भारत में ’भागवान’ कहते हैं, हमारे दादाजी ने, जिनके जीवन का मूल आधार ही प्रेम था, पचास बरस की उमर में ही अपनी पत्नी को प्यारभरा स्म्बोधन दिया था ’बुढ़िया’ और आजीवन इसका प्रयोग भी किया।

प्रेमचन्दजी ने लिखा है कि वृद्ध लोगों को अपने अतीत की महानता, वर्तमान की दुर्दशा और भविष्य की चिन्ता से अच्छा और कोई विषय बातचीत के लिये नहीं मिलता। पर दादाजी ऐसे न थे। न उन्होंने कभी अपने मातापिताविहीन बचपन की दुखद बातें करके अपने मन को दुखी बनाया और न कभी भविष्य की चिन्ता की। वे वर्तमान में ही जीते रहे। वर्तमान के हर पल को आनन्द के साथ, अत्यन्त सहजता के साथ जीनेवाला ऐसा दूसरा प्राणी मैंने दूसरा आजतक नहीं देखा । न उन्हें राजनीति में दिलचस्पी थी और न ही घर के पचड़ों में। परिवार के व्यवसाय में नियमित रूप से जाते जरूर थे, वहाँ पर भी काम कम करते और हँसी मजाक अधिक।

अधिकतर समय दादाजी बच्चों में ही मन रमाये रहते, जैसे सदैव प्रसन्न रहने का रहस्य उन्हें मिल गया हो। उनके साथ ताश व कैरम खेलते, स्कूल की बातें सुनते तथा कहानियाँ भी सुनते सुनाते। दादाजी को कला अथवा साहित्य की जानकरी या परिचय न था। पर कुछ ऐसा हुआ कि कालान्तर में वे प्रेमचन्दजी के अनन्य भक्त हो गये। हुआ यह कि जब हम उनकी पुरानी कहानियों से बोर हो गये, तो एक दिन मैंने उनको प्रेमचन्दजी की सुप्रसिद्ध कहानी ’पाँच परमेश्वर’ सुना दी। वह कहानी उनको इतनी अच्छी लगी कि मुझसे जब तब और कहानियाँ सुनाने की फरमाइश करने लगे। उनका उत्साह देखकर मैने पुस्तकालय से मानसरोवर के कई भाग लाकर उन्हें प्रेमचन्दजी की और भी कहानियाँ सुनाईं। दादाजी को कहानी सुनाने का अनुभव भी अत्यन्त रोचक है । कहानी सुनाने का अभियान बड़ी शान्ति से शुरु होता। ज्यों-ज्यों कथा-सूत्र आगे बढ़ता, घटनायें और चरित्र स्पष्ट होने लगते, दादाजी तन्मय हो जाते। कई बार उनकी आँखों से आँसू बहने लगते, मुँह खुला का खुला रह जाता, कहानी के भाव-परिवर्तन के साथ-साथ उनके चेहरे के भाव भी बदलने लगते और भर्राये गले से कहते,- "सरवा क्या खूब लिखता है।" प्रेमचन्दजी की प्रशंसा में कई ग्रन्थ लिखे गये होंगे पर ऐसी अभिव्यक्ति शायद ही किसी ने की हो। यही एकमात्र ऐसा समय था कि यदि कोई बच्चा भी उन्हें टोकता तो उसे भी झिड़क कर कहते, "अभी चुप रहो ।" कभी-कभी मैं भी उन्हे भावविभोर हुआ देखकर, कहानी पढ़ना भूलकर उन्हें देखने लगती और कहती, "दादाजी इसमें रोने की क्या बात है, कोई मरा वरा थोड़े ही है।" उन्हे मेरी बाधा बिल्कुल भी अच्छी न लगती, कहते, - "तू आगे पढ़, तू नहीं समझेगी।" तब शायद मुझे सचमुच समझ में नहीं आता था ।
एक और मर्मस्पर्शी घटना उल्लेखनीय है। एकबार एक अच्छी कहानी सुनाने के उद्देश्य से मैं उनके कमरे में गयी। जो देखा, अवाक रह गयी। दादाजी का नौकर छोटू दर्द से कराह रहा था और दादाजी उसकी पीठ पर मालिश कर रहे थे। छोटू संकोच से गड़ा जा रहा था और दादाजी उसे समझा रहे थे कि इसमें कोई हर्ज नहीं है। यह दृश्य देखकर मेरा हृदय श्रद्धा से भर उठा। उनके मन में छोटा-बड़ा, अपना- पराया, अमीर-गरीब के बीच कोई भेद न था। यद्यपि उन्होंने स्कूल कालेज में कभी कोई शिक्षा पास नहीं की, पर जीवन की पाठशाला में प्रेम की परीक्षा में उन्हें कोई भी जीत नहीं सका था।

पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय ।
ढाई अच्छर प्रेम को, पढ़ै सो पंडित होय ।।
दादाजी ने उसी ढाई अक्षर को केवल पढ़ा ही नहीं था वरन अपने जीवन में चरितार्थ कर दिया था।

Thursday, July 9, 2009

छोटी छोटी बातें



छोटी छोटी बातों में, कितना सुख समाया है,
उनकी वो मुस्कुराहट, उनके आने की आहट,
छोटी सी पाती में किसका सन्देसा आया है।
छोटी छोटी बातों में....



नन्हे से ताल में, पूरे गगन की छाया,
छोटे से पंछी ने, उड़ने को पर फैलाया,
नन्हीं सी कलियों ने, सौरभ कितना बिखराया है।
छोटी छोटी बातों में....


छोटे से शब्द 'माँ' में, कितना छिपा है प्यार,
छोटी सी एक ’हाँ’ ने, बदला मेरा संसार,
थोड़ा सा देकर मन ने, कितना कुछ पाया है।
छोटी छोटी बातों में....


कुछ ही शब्दों से मिलकर, गीत एक बन जाता है,
सात सुर की सरगम से, उनमें स्वर ढल जाता है,
उन गीतों से किसी ने, सपना सजाया है।
छोटी छोटी बातों में, कितना सुख समाया है

Wednesday, July 8, 2009

माँ

मां



माँ बनकर ही मैंने जाना,
क्या होता है माँ का प्यार।
जिस माँ ने अनजाने ही,
दे दिया मुझे सारा संसार।।


गरमी से कुम्हलाये मुख
पर भी जो जाती थी वार।
शीत भरी ठंडी रातों में,
लिहाफ उढ़ा देती हर बार।।


उस दुलार से कभी खीजती,
मान कभी करती थी मैं,
उसी प्यार को अब मन तरसे,
उस रस की अब कहाँ फुहार?


माँ बनकर ही मैंने जाना,
क्या होता है माँ का प्यार।


प्रसव-पीर की पीड़ा सहकर,
जब मैं थककर चूर हुई,
नन्हें शिशु के मुखदर्शन से,
सभी क्लान्ति दूर हुई,


कल तक मैं माँ-माँ कहती थी,
अब मैं भी माँ कहलायी,
मन की गंगोत्री से निकली,
ममता की वह अनुपम धार।


मां बनकर ही मैंने जाना,
क्या होता है माँ का प्यार।


शिशु की सुख-सुविधाओं का,
अब रहता था कितना ध्यान।
त्याग, परिश्रम हुये सहज,
क्षमा हुई कितनी आसान।।


आंचल में दूध नयन में पानी,
बचपन में था पढ़ा कभी,
वे गुण अनायास ही पाये,
मातृरूप हुआ साकार।।


माँ बनकर ही मैंने जाना,
क्या होता है माँ का प्यार।


यद्यपि माँ, इस जग की
सीमाओं से, तुम दूर हुईं।
फिर भी मुझे लगा करता है,
हो सदैव तुम पास यहीं।।


जबतक मैं हूँ, तुम हो मुझमें,
दूर नहीं हम हुये कभी,
माता का नाता ही होता,
सब सम्बन्धों का आधार।।


माँ बनकर ही मैंने जाना,
क्या होता है माँ का प्यार।
जिस माँ ने अनजाने ही
दे दिया मुझे सारा संसार।।




Tuesday, July 7, 2009

श्रीमती साध्वी बाजपेयी - आशा बर्मन


Sunday, June 14, 2009

श्रीमती साध्वी बाजपेयी एक प्रतिभाशाली तथा समर्थ महिला हैं, जिनका सम्मान श्रीमती ऊषा अग्रवाल ने ९ मई, २००९ को अपने भव्य निवासस्थान पर किया। ८३ वर्षीय साध्वी जी ने नाटक तथा अन्य संगीत अनुष्ठानों के द्वारा कनाडा की विभिन्न दातव्य संस्थाओं (charitable organizations) को लगभ १००,००० डॉलर दानस्वरूप दिया। इनसे प्रभावित होकर कनाडा के गवर्नर जनरल ने इन्हें ‘Caring Canadian Award’ प्रदान किया।साध्वी जी टोरोंटो तथा इसके निकटवर्ती क्षेत्रों में हिन्दी के सुन्दर नाटकों के निर्देशन तथा मंचन के लिए प्रसिद्ध हैं। एक बार जो इनका नाटक देख लेता है, अगले नाटक की प्रतीक्षा करने लगता है। यहाँ के यंत्रचालित जीवन से उबरने के लिये हम प्रवास भारतीय सदैव स्वस्थ मनोरंजन के उत्तम साधनों की खोज में रहते हैं।ऐसे तो कई प्रवासी भारतीय सांस्कृतिक कार्यों द्वारा भारतीय भाषा, संगीत, नृत्य, नाटक के प्रसार में संलग्न हैं पर साध्वी जी उन विरल लोगों में से हैं, जिनके प्रयासों से कनाडा का सम्पूर्ण जनसमाज प्रभावित तथा लाभान्वित हुआ है।
इन्होंने १९९० में ओन्टेरियो के किचनर-वाटरलू के क्षेत्र में ’तरंग’ नामक एक संस्था का संगठन किया। इसी संस्था ने हिन्दी के नाटक तथा संगीत कार्यक्रमों का आयोजन कर, विपुल धनराशि अर्जित कर जिन दातव्य संस्थाओं को दिये उनके नाम हैं – हार्ट एंड स्ट्रोक फ़ाउन्डेशन, कैनेडियन कैंसर सोसाईटी, आर्थराईटिस सोसाईटी, होम्स फ़ॉर अब्यूज़्ड विमेन एंड चिल्ड्रन इत्यादि। यह संस्था अभी भी सक्रिय है। १९९० से अब तक ’तरंग’ ने “ढोंग”, “हंगामा”, अण्डरसेक्रेटरी, पैसा-पैसा-पैसा, श्री भोलानाथ, ताजमहल का टेन्डर तथा अपने-अपने दाँव जैसे रोचक सामाजिक नाटकों का सफल प्रदर्शन कर जनता का मन जीत लिया। इनके नाटकों में कार्य करने वाले कलाकारों के नाम हैं – श्रीमती रीता खान तथा श्री अरशद खान (साध्वी जी की पुत्री व जंवाई), श्री शशी जोगलेकर तथा श्रीमती अन्विता जोगलेकर, श्रीमती रेणु भण्डारी, श्री पामे विरधि, श्री हौरेस कोहेलो तथा श्रीमती रीटा कोहेलो, किशोर व्यास, प्रकाश खरे, शांता और लक्ष्मण रागडे, कुसुम और विनोद भारद्वाज और जैस्सिका मिरांडा। मंच-सहायक के रूप में श्री कुरेश बन्टूक, श्री किशोर व्यास, श्रीमती अनिला ओझा, श्री प्रकाश खरे, श्रीमती उल्का खरे, प्रीत आहूजा, शान्ति तथा लक्ष्मण रेगड़े ने कार्य किया।इसके अलावा साध्वी जी ने Club 600 नामक एक सीनियर क्लब में तीन वर्षों तक अध्यक्षा का पद सम्हाला।

ओन्टेरियो से पूर्व साध्वी जी न्यू-ब्रान्ज़विक में कुछेक वर्ष रहीं, जहाँ 1982 में इन्हें Woman of the year का सम्मान मिला। भारतवर्ष में कई वर्ष ये Girl Guide जुड़ी रहीं। एक कलाकार का सही परिचय उसकी कला है। साध्वी जी के नाटकों से जितना मैंने जाना व समझा है मैं सदैव ही उनसे प्रभावित रही हूँ। ऐसा लगता है, मानों उनकी शिराओं में कला व सृजनशीलता रक्त की भाँति प्रवाहित होती रहती है। उन्होंने अपने जीवन से यह सिद्ध कर दिया है कि एक सच्चे कलाकार को आयु, स्वास्थ्य, समय व देश की सीमा से बाँधा नहीं जा सकता। “अपने अपने दाँव” के प्रदर्शन के समय साध्वी जी अपने अभिनेता-अभिनेत्रियों के उत्साह को बढ़ाने के लिये अस्वस्थ होते हुए भी व्हीलचेयर पर ऑक्सीजन के यंत्र के साथ उपस्थित रहीं। उनके व्यक्तित्व का सबसे प्रभावशाली रूप मुझे लगता है कि सदैव उनके मुख पर सहज मधुर मुस्कान विद्यमान रहती है।साध्वी जी को देखकर मुझे हिन्दी के वरिष्ठ कवि श्री जयशंकर

प्रसाद जी की ये पंक्तियाँ सहज ही स्मरण हो आती हैं –

नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नग पगतल में।
पीयूष-स्रोत सी बहा करो, जीवन के सुन्दर समतल में॥

सत्य ही है, कनाडा की सुन्दर समतल भूमि में साध्वी जी की कला अमृतधारा की भाँति वर्षों से प्रवाहित होती रही है। हम दर्शक उसी रस से सराबोर होकर सदैव आनन्दित होते रहे हैं।

जीवन की सांझ

जीवन की सांझ

जीवन की सांझ का प्रहर
ढ्ल चली हॆ दोपहर

बयार मंद-मंद हॆ
धूप भी नहीं प्रखर

यह समय भला-भला
नये से रंग में ढ्ला

जीवन का नया मॊड़ हॆ
न कोई भाग दॊड़ हॆ

काम का न बोझ हॆ
जाना न कहीं रोज हॆ

जब जो खुशी वही करॊ
न मन का हॊ नहीं करॊ

चाहे जहां चले गये
दायित्व पूरे हो गये

न सर पे मेरे ताज़ हॆ.
फिर भी अपना राज़ हॆ

तन थका न क्लान्त हॆ
मन बड़ा शान्त हॆ

दिन-रात तेरा साथ हॆ
बड़ी मधुर सी बात हॆ

जो मिल गया प्रसाद हॆ
न अब कॊई विषाद हॆ

बगिया की हर कली खिली
उसे सभी खुशी मिली

मकरन्द जो बिख्रर गया
सॊन्दर्य सब निख्रर गया

आज तुम जी भर जियो
खुशी के घूंट तुम पियॊ

कल की कल पे छॊड़ दॊ
कल जो होना हो सो हो

मॊन की मुखरता


मॊन की मुखरता


इस मॊन भरे वीराने में मन मेरा हो रहा मुखर


संचित स्मृतियां मेरी अपनी, मन में शोर मचाती हॆं
परिचित सी ध्वनियां कोई, अन्तर के भाव जगाती हॆं


उन परिचित स्वरों में होता वार्तालाप निरन्तर
इस मॊन भरे वीराने में मन मेरा हो रहा मुखर


भूले बिसरे से चित्र कभी, धुंधलाकर मन में छा जाते,
हंसते-गाते जो साथ कभी थे, वे ही मुझे रुला देते.


नीरवता के अंधियारे में, स्मृति-दृष्टि हो रही प्रख्रर
इस मॊन भरे वीराने में मन मेरा हो रहा मुखर


चुप रहकर देख रहा हॆ, साक्षी बन यह व्योम विशाल
यह धरती भी मूक पड़ी,सब सहकर अब हुई निढाल


आती-जाती सागर की लहरें भी कहतीं कुछ लहर-लहर
इस मॊन भरे वीराने में, मन मेरा हो रहा मुखर


मुखरित होते मन को सुनकर, भावबहुल मन को संयत कर,
कागज़-मसि ले मॆं बॆठी, भावों को उनमें उड़ेलकर


कुछ कह पाती, कुछ रह जाता, फ़िर लिखती कुछ ठ्हर-ठ्हर
इस मॊन भरे वीराने में मन मेरा हो रहा मुख्रर


अपेक्षायें

आरम्भ से अबतक
दूसरों की अपेक्षाओं को
सुनने-समझने त्तथा
पूरा करने के प्रयास में
लगी-लगी, मॆं भूल ही गयी
कि स्वयं से भी मेरी
कॊई अपेक्षा भी हॆ क्या?

पहले माता-पिता की,
उसके पश्चात पति की
अपेक्षाओं से अवकाश
मिला ही न था कि
समय आ गया हॆ कि
समझूं कि हमारे बच्चे
हमसे क्या चाह्ते हें ?

तीन पीढियॊं की अपेक्षाओं से
जूझते हुये मुझे क्या मिला ?
मुझे मिला सुरक्षाओं का
एक ऎसा सुदृढ़ कवच कि
उसमें जकड़ी-जकड़ी मॆं
निरन्तर भूलती चली गयी कि
आखिर मैं स्वयं से भी क्या चाह्ती हूं ?

अब तो स्थिति यह हॆ कि
मेरा सारा अपनापन, मेरे अपनों में
इतना विलय हो चुका हॆ कि
उससे पृथक मेरा अस्तित्व
ही कहां रहा हॆ ? तो
अब मैं क्या, ऒर
मेरी अपेक्षायें भी क्या?