Wednesday, July 15, 2009

भाव मंजूषा - आशा बर्मन



निज भावों का पार न पाती।


मेरे भावों की सरिता से
सारी जगती ही भर जाती।
निज भावों का पार न पाती।


अन्तर में सुख दुख के निर्झर,
झर-झर झरतें रहें निरन्तर,
हाथ धरूँ जब तक मैं उन पर,
लुप्त हुए, वे रूप बदल कर,


इस आँख मिचौली में ही
सारी साँझ बीत है जाती।
निज भावों का पार न पाती।


भाषा में शब्द हैं सीमित,
शब्दज्ञान मेरा है परिमित
जिन भावों के रूप स्पष्टतम,
उनको ही कह पाती किंचित।


भाव कर सके जो हृदयंगम,
ऐसा कोई बिरला साथी
निज भावों का पार न पाती।


मन का मीत यदि मिल जाए,
उर की कली-कली खिल जाए,
कोई तो समझेगा मुझको,
इस आशा का दीप जलाए,


भाव-भरी मंजूषा मेरी,
सौंप चलूँ उसको यह थाती
निज भावों का पार न पाती।

3 comments:

  1. भाव कर सके जो हृदयंगम,
    ऐसा कोई बिरला साथी
    सही है हृदयंगम तो हृदय वाला ही कर सकता है
    बहुत अच्छी रचना

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  2. बेहतरीन बात कही!!

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  3. वाह !!! अतिसुन्दर !!! अद्वितीय रचना......

    इस सुन्दर रचना को पढ़वाने हेतु आभार आपका.

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