Thursday, March 19, 2009

आशा का विस्तार- बँधे हुये लोग


उत्साहित हूँ कि अपना नया ब्लाग शुरु कर रही हूँ। आज मेरी एक छोटी सी, प्रिय रचना से शुभारंभ करती हूँ।

खुला आकाश,
दूर-दूर तक फैली धरती,
स्वच्छंद समीरण और
बँधे-बँधे लोग।

भले-बुरे विभिन्न
कार्य कलाप करते हुये
अपने-अपने अहं के
सूत्र से बँधे लोग।

अपने से सशक्त देखा
उनकी परिधियों से
स्वयं को भी बाँधने लगे

जहाँ अपने से अशक्त देखा,
निज से असहमत लोगों को,
अकाट्य तर्कों से निरुत्तर कर,

वाग्वाण से आहत कर
प्रसन्न होने की निष्फल चेष्टा करते
हम सतत व्यस्त रहे।

और हमारा अहंकार,
कठपुतली से नाचते हुये हमें,
देखता रहा बन सूत्रधार।

मुस्करा रहा मंद-मंद
तुष्ट-परिटुष्ट हमारा अहं।