Wednesday, March 10, 2010

मैं और मेरी कविता- आशा बर्मन

मैं और मेरी कविता
कभी कभी मुझे ऐसा होता है प्रतीत,
कि मेरी कविताओं का भी
बन गया है अपना व्यक्तित्व ।
वे मुझे बुलाती हैं,
हंसाती हैं, रुलाती हैं,
बहुत दिनों तक उपेक्षित रहने पर
मुझसे रूठ भी जाती हैं।
करती हुई ठिठोली,
एक दिन एक कविता मुझसे बोली,
”तुम मुझे कभी नहीं पढ़्ती हो,
दूसरी कविता को मुझसे
ज्यादा प्यार जो करती हो।"
“एक कविता ने तो हद ही कर दी,
जब वह एक सिरचढ़ी किशोरी सी
हठात घोषणा सी करने लगी
”तुम्हें करना होगा कोई उपाय,
मेरे साथ नहीं हुआ है न्याय ।"
मैं आश्चर्य से उसे देखती रही.
और वह अपनी धुन में
कहती चली गयी ।
"मेरे कुछ शब्दों को बदल दो,
तो मैं और निखर जाऊंगी,
अभी मेरा स्वर धीमा है,
कुछ और मुखर हो जाऊंगी"
मैंने उसे समझाया,
”मेरे जीवन में मेरे सिवाय
और भी बहुत कुछ है।
मेरा घर, मेरे बच्चे,
मेरे पति, मेरे मित्र।"
मैनें यह भी कहा,
”तुम आखिर थीं क्या?
मेरे अवचेतन में पडी़
मात्र एक अनुभूति।
मैंने तुम्हें स्वर दिया,
रूप दिया, जैसे तुम्हें पाला-पोसा ।
और तुमने मुझे, जैसे
अपनी मां की ममता को नकार,
अन्यायी कहकर कोसा ।"
मैनें यह भी दी युक्ति,
”मैंने तो तुम्हें जीवन दिया,
तुम मुझे दो मुक्ति ।
हे कविताकामिनी, मुझपर भी ध्यान दो,
जो कहने जा रही हूँ, उसपर भी कान दो।
अन्याय की दुहाई मत दो तुम बार-बार,
तुम्हारे नख्ररे पहले भी सहे हैं हजार बार
कभी-कभी जाडे़ की उनींदी रात
भाव की हल्की सी झलक दिखाकर
भाग जाती हो,और सुबह पुकार कर
बुलाने पर भी नहीं आती हो ।"
और कभी,व्यस्तता के क्षणों में
अन्तर से कहती हो-
"मुझे स्वर दो, मुझे स्वर दो"
मैं झुंझलाकर जबाब देतै हूँ-
"अभी रुको,अभी चुप रहो,
मुझे दफ़्तर में बहुत काम है,
शाम को भी ओवरटाइम है।"
“अपना समझकर कह रही हूँ,
”कनाडा में "वर्किंग मदर"
कार्यरत माँ होना आसान नहीं है।
कभी-कभी तो तुम चेता करो,
दूसरे का समय-असमय भी तो देखा करो।
जब सब काम निबटाकर,
आराम कर रही होऊँ,
तो प्यार से, दुलार से,
आदर से पास आओ,
धीरे-धीरे कोमलता से
मेरे भावों को सहलाओ।
इससे मेरी कल्पना का द्वार खुलेगा
तुम्हारे भावों को भी समुचित कलेवर मिलेगा।
तब देखना, मेरे भी वात्सल्य का स्रोत झरेगा।
हमदोनों के बीच बढ़्ता हुआ यह अन्तर
हमदोनों के प्रयास से ही तो भरेगा।“