Monday, August 16, 2010

हिन्दुस्तान की पहचान- आशा बर्मन


हिन्दुस्तान की पहचान

अपने हिन्दुस्तान की पहचान कहाँ है?
प्रातःकाल चरणस्पर्श है, न नमस्कार,
गुडमार्निंग की चहुंदिशि हो रही बौछार॥
जयरामजी को सुनने को तरस गये कान,
अपनी सभ्यता के नमन और प्रणाम कहाँ हैं ?
अपने हिन्दुस्तान की पहचान कहाँ है?

भारत में सुबह होगी, वहीं होगी शाम,
खायेंगे समोसे , जलेबी भरकर प्राण,
डबलरोटी, बिस्किट देखकर मैं निराश हुई।
हाय वे स्वदेशी जलपान कहाँ हैं ?
अपने हिन्दुस्तान की पहचान कहाँ है?


किसी के घर गये खाने को निमंत्रण,
वीसीआर पे देख रहे वे, अमिताभ बच्चन,
संकेत से कहा कि आप बैठ जाइये,
अतिथि के प्रति प्रेम और सम्मान कहाँ हैं ?
अपने हिन्दुस्तान की पहचान कहाँ है?

अंग्रेजी शिक्षा का हो रहा है माध्यम,
फ़ैशनपरस्ती में खो गया है सादापन,
पूर्व पर पश्चिम का चढ़ गया रंग,
इस समस्या का समाधान कहाँ है?
अपने हिन्दुस्तान की पहचान कहाँ है?

समाचारपत्र देख, मन हुआ अति प्रसन्न.
निज मातृभाषा हिन्दी में किया गया वर्णन,
हिंसा और आतंक पढ़्कर काँप गया मन,
और पूछ रहा अहिंसा का वरदान कहाँ है?
अपने हिन्दुस्तान की पहचान कहाँ है?

Wednesday, March 10, 2010

मैं और मेरी कविता- आशा बर्मन

मैं और मेरी कविता
कभी कभी मुझे ऐसा होता है प्रतीत,
कि मेरी कविताओं का भी
बन गया है अपना व्यक्तित्व ।
वे मुझे बुलाती हैं,
हंसाती हैं, रुलाती हैं,
बहुत दिनों तक उपेक्षित रहने पर
मुझसे रूठ भी जाती हैं।
करती हुई ठिठोली,
एक दिन एक कविता मुझसे बोली,
”तुम मुझे कभी नहीं पढ़्ती हो,
दूसरी कविता को मुझसे
ज्यादा प्यार जो करती हो।"
“एक कविता ने तो हद ही कर दी,
जब वह एक सिरचढ़ी किशोरी सी
हठात घोषणा सी करने लगी
”तुम्हें करना होगा कोई उपाय,
मेरे साथ नहीं हुआ है न्याय ।"
मैं आश्चर्य से उसे देखती रही.
और वह अपनी धुन में
कहती चली गयी ।
"मेरे कुछ शब्दों को बदल दो,
तो मैं और निखर जाऊंगी,
अभी मेरा स्वर धीमा है,
कुछ और मुखर हो जाऊंगी"
मैंने उसे समझाया,
”मेरे जीवन में मेरे सिवाय
और भी बहुत कुछ है।
मेरा घर, मेरे बच्चे,
मेरे पति, मेरे मित्र।"
मैनें यह भी कहा,
”तुम आखिर थीं क्या?
मेरे अवचेतन में पडी़
मात्र एक अनुभूति।
मैंने तुम्हें स्वर दिया,
रूप दिया, जैसे तुम्हें पाला-पोसा ।
और तुमने मुझे, जैसे
अपनी मां की ममता को नकार,
अन्यायी कहकर कोसा ।"
मैनें यह भी दी युक्ति,
”मैंने तो तुम्हें जीवन दिया,
तुम मुझे दो मुक्ति ।
हे कविताकामिनी, मुझपर भी ध्यान दो,
जो कहने जा रही हूँ, उसपर भी कान दो।
अन्याय की दुहाई मत दो तुम बार-बार,
तुम्हारे नख्ररे पहले भी सहे हैं हजार बार
कभी-कभी जाडे़ की उनींदी रात
भाव की हल्की सी झलक दिखाकर
भाग जाती हो,और सुबह पुकार कर
बुलाने पर भी नहीं आती हो ।"
और कभी,व्यस्तता के क्षणों में
अन्तर से कहती हो-
"मुझे स्वर दो, मुझे स्वर दो"
मैं झुंझलाकर जबाब देतै हूँ-
"अभी रुको,अभी चुप रहो,
मुझे दफ़्तर में बहुत काम है,
शाम को भी ओवरटाइम है।"
“अपना समझकर कह रही हूँ,
”कनाडा में "वर्किंग मदर"
कार्यरत माँ होना आसान नहीं है।
कभी-कभी तो तुम चेता करो,
दूसरे का समय-असमय भी तो देखा करो।
जब सब काम निबटाकर,
आराम कर रही होऊँ,
तो प्यार से, दुलार से,
आदर से पास आओ,
धीरे-धीरे कोमलता से
मेरे भावों को सहलाओ।
इससे मेरी कल्पना का द्वार खुलेगा
तुम्हारे भावों को भी समुचित कलेवर मिलेगा।
तब देखना, मेरे भी वात्सल्य का स्रोत झरेगा।
हमदोनों के बीच बढ़्ता हुआ यह अन्तर
हमदोनों के प्रयास से ही तो भरेगा।“

Tuesday, January 26, 2010

प्रवासी की पीड़ा - आशा बर्मन




प्रवासी की पीड़ा



एक प्रश्न बादल सा बोझिल,मन में मेरे घिर-घिर आता,
प्रवास के इस जीवन में.क्या खोया, क्या मैंने पाया ?



त्योहारों पर माता का, प्यार भरा निमंत्रण पाना।
और विभिन्न बहानों से,साजन का अपने पास बुलाना॥



ऐसे मधुर प्रसंगों से, स्वयं को मैंने वंचित पाया
प्रवास के इस जीवन में.क्या खोया, क्या मैंने पाया ?



हास-परिहास देवरों के,नन्दों की मीठी फ़टकार ।
भाई-बहनों के उपालम्भ,जिनसे बरबस था झरता प्यार॥



ऐसी मीठी बातों का अवसर जीवन में कम आया ।
प्रवास के इस जीवन में.क्या खोया, क्या मैंने पाया ?



अपने बच्चों ने सच पूछो,नानी -दादी का प्यार न जाना।
बरसों पर मिले यदि तो, सबने उनको पाहुन ही माना॥



सब संग मिलकर रह पाने से,उनमें जो पड़ते संस्कार।
वे भला पनपते कैसे, उन्हें न मिला ठोस आधार॥



ऐसी-ऐसी कितनी बातें, कहाँ तक गिनाऊँ मैं ?
क्या खोया इस विषय का, ओर-छोर न पाऊँ मै॥



सहसा पत्रों से जब जाना, दूर बसे प्रियजन बीमार।
उनसे मिलने को व्याकुल मन,दूरी बनी विकट दीवार॥



और कभी प्रियजन को खोया चिरनिद्रा में, हो लाचार।
ऐसे अवसर पर प्रवास को मिला,सौ सौ बार धिक्कार॥



मन के घाव समय से भरते,पर ये न कभी भर पायेंगे?
इस खोने की गहराई को, क्या शब्द व्यक्त कर पायेंगे?



यदि जन्म-जन्मान्तर सच है,तो हे प्रभु यह वर देना,
देना जन्म उसी धरती पर, शाप प्रवास का हर लेना ॥