Tuesday, January 26, 2010

प्रवासी की पीड़ा - आशा बर्मन




प्रवासी की पीड़ा



एक प्रश्न बादल सा बोझिल,मन में मेरे घिर-घिर आता,
प्रवास के इस जीवन में.क्या खोया, क्या मैंने पाया ?



त्योहारों पर माता का, प्यार भरा निमंत्रण पाना।
और विभिन्न बहानों से,साजन का अपने पास बुलाना॥



ऐसे मधुर प्रसंगों से, स्वयं को मैंने वंचित पाया
प्रवास के इस जीवन में.क्या खोया, क्या मैंने पाया ?



हास-परिहास देवरों के,नन्दों की मीठी फ़टकार ।
भाई-बहनों के उपालम्भ,जिनसे बरबस था झरता प्यार॥



ऐसी मीठी बातों का अवसर जीवन में कम आया ।
प्रवास के इस जीवन में.क्या खोया, क्या मैंने पाया ?



अपने बच्चों ने सच पूछो,नानी -दादी का प्यार न जाना।
बरसों पर मिले यदि तो, सबने उनको पाहुन ही माना॥



सब संग मिलकर रह पाने से,उनमें जो पड़ते संस्कार।
वे भला पनपते कैसे, उन्हें न मिला ठोस आधार॥



ऐसी-ऐसी कितनी बातें, कहाँ तक गिनाऊँ मैं ?
क्या खोया इस विषय का, ओर-छोर न पाऊँ मै॥



सहसा पत्रों से जब जाना, दूर बसे प्रियजन बीमार।
उनसे मिलने को व्याकुल मन,दूरी बनी विकट दीवार॥



और कभी प्रियजन को खोया चिरनिद्रा में, हो लाचार।
ऐसे अवसर पर प्रवास को मिला,सौ सौ बार धिक्कार॥



मन के घाव समय से भरते,पर ये न कभी भर पायेंगे?
इस खोने की गहराई को, क्या शब्द व्यक्त कर पायेंगे?



यदि जन्म-जन्मान्तर सच है,तो हे प्रभु यह वर देना,
देना जन्म उसी धरती पर, शाप प्रवास का हर लेना ॥