Sunday, November 22, 2009

अभिशप्त- आशा बर्मन



अभिशप्त


पृथ्वी को केन्द्र मानकर,
चाँद उसके चारों तरफ़
घूमता रहता है।


और स्वयं पृथ्वी भी तो
विशाल विस्तृत पृथ्वी,
शस्य-श्यामला पृथ्वी ,
रत्नगर्भा पृथ्वी, सूर्य के
चारों ओर घूमती रहती है-
बाध्य सी,
निरीह सी,
अभिशप्त सी।


फ़िर भी,इस प्रकार
घूमते रहने में
एक क्रम है,
एक नियम है,
एक उद्देश्य है।
वे अभिशप्त से इसलिये
घूमते रहते हैं,
ताकि प्रकृति के नियम
समयानुसार बदलते रहें।
ऋतुओं के, दिनरात के क्रम
यथावत चलते रहें।


पर मनुष्य!
वह न तो इतना बाध्य है,
न इतना निरीह और
न ही इतना अभिशप्त ।


फ़िर वह क्यों
अहम को अपनी धुरी मानकर
उसकी परिधि में निरन्तर
तीव्र से तीव्रतर
उस दम तक
घूमता रहता है,
जबतक कि वह
बेदम होकर
गिर न पड़े ।

Tuesday, November 10, 2009

हर कदम- आशा बर्मन


हर कदम रखने से पहले बार -बार मैं सोचती हूँ।

स्वार्थ जब अपना सधा, तो प्यार से मुझको बुलाया।
करके मीठी-मीठी बातें, मन में अपनापन जगाया ॥

मैंने जब अपनी कही, अनजान बन कर मुख फ़िराया,
अपने बोझिल मन को ले मैं, अश्रु बरबस पोछती हूँ।

हर कदम रखने से पहले, बार -बार मैं सोचती हूँ॥

सभी का विश्वास करके, सहज ही अपना बनाना।
अपनी तो तुम छोड़ ही दो, बहुत तुमको मैंने माना।।

मत भरोसा करो सबका, भूल करके मैंने जाना
हर किसी आहट पे अब मैं बार-बार क्यों चौकती हूँ ?

हर कदम रखने से पहले बार -बार मैं सोचती हूँ।।

मन मेरा हो चुका घायल, तन में किंचित दम नहीं है।
है लगी इक अगन मन, उत्साह फ़िर भी कम नहीं है॥

कोई तो होगा कहीं पर, समझ जो मुझको सकेगा,
उसी स्नेहिल दृष्टि को मैं, प्राणप्रण से खोजती हूँ ।

हर कदम रखने से पहले बार -बार मैं सोचती हूँ॥

Friday, November 6, 2009

अपनेपन का संसार- आशा बर्मन

अपनों से जब दूर हुये, गैरों से मुझको प्यार मिला ।
गैर बने अब अपने से, अपनेपन का संसार मिला ॥

देश नया, परिवेश नया था, पर मन में सुख चैन कहां ?
तन से मेरा वास यहाँ था, मन मेरा दिन रैन वहाँ ॥

प्रेम का पाथेय मिला तो, जीने का आधार मिला ।
गैर बने अब अपने से, अपनेपन का संसार मिला ॥

रिश्ते ऐसे भी होते हैं, जिनको हम घुट-घुट जीते हैं।
रहते मुख से मौन सदा. पर घूँट गरल के पीते हैं ॥

है नसीब अपना- अपना,ऐसा न मुझे व्यवहार मिला ।
गैर बने अब अपने से, अपनेपन का संसार मिला ॥

प्रीत की डोरी में बँधकर हम, सुख-दुःख बाँटा करते हैं।
इस प्यार के खातिर जीते हैं, इस प्यार के खातिर मरते हैं॥

भावशून्य नीरस इस जग में, सुख का पारावार मिला।
गैर बने अब अपने से, अपनेपन का संसार मिला॥

Sunday, November 1, 2009

प्रेमगीत - आशा बर्मन


मत करीब आओ कि डर लगता है।

और पाने की कशिश है, कोशिश फ़िर भी,
खो न दूँ, जो भी पाया है कि डर लगता है।
मत करीब आओ कि डर लगता है।

मृदुल स्मृतियाँ सहलाती मन को,
मधुर कल्पनायें बहलाती मन को,
बिसरी बातों में न बदलें कि डर लगता है।
मत करीब आओ कि डर लगता है।

विश्वास की नैया में हम चलते ही गये,
वह कब प्रेम में बदला,यह समझ ही न सके,
प्यार अब और तो बढ़ सकता नहीं,
कम न हो जाये कि डर लगता है।
मत करीब आओ कि डर लगता है।

इस पार रहें कि हम उस पार रहें,
हां - ना के झूले में कबतक झूलें,
अबतक जिस छोर को पकड़ा मैनें.
वो भी टूटेगा, छूटेगा,कि डर लगता है।
मत करीब आओ कि डर लगता है।