Friday, July 10, 2009

वे पत्र

वे पत्र




शाम के थके-हारे,
मेलबाक्स की ओर बढ्ते पग
सहसा रुक जाते हैं

इसलिये नहीं कि उसमें
लिफ़ाफ़े नहीं हैं
बल्कि इसलिये कि

उनमें अनचाहे बिल हैं,
सांस्कृतिक सूचनायें हैं,
’सेल’ के विविध कागज भी हैं
केवल वे नीले लिफ़ाफ़े ही नहीं,
जिन्हें देख्नने को मेरी आंखें
तरस गयी हैं


मां के लिखे वे नीले अन्तर्देशीय पत्र
जिनमें होता था विस्तृत वर्णन
किसी का जन्म, किसी का मुंड्न,
किसी का विवाह, किसी का उपनयन,

जिनमें अक्षर व शब्द ही नहीं,
गन्ध थी स्वदेश की,
अल्पसमय को ही सही,
भुला देती दूरी विदेश की


वे पत्र, जिनमें
अबतक न आने की थी
प्यार भरी फ़ट्कार
जिनको पढ्कर भी पढा है
कई-कई बार क्योंकि
दृष्टि की तरलता करती
धूमिल पत्र का प्रवाह

वे पत्र, जॊ स्वयं हो जाते शेष,
बहुत-कुछ कहना-सुनना
फ़िर भी रह जाता अशेष


वे पत्र, जिन्होनें मुझे
दूर रहते हुये भी
सगे-सम्बन्धियों से,
पास-पड़ोसियों से,
संबन्धों की अनेक कड़ियों में
बांध रखा था


वे कड़ियां अब गयीं हैं बिखर,
पत्रॊं की प्रतीक्षा हो रही क्षीणतर,
अब मुझे उन्हीं उपेक्षित
पत्रों के पुलिन्दों को उठाना है,
बिलों का भुगतान करके
’सेल’ के कागजों से ही
दिल बहलाना है

1 comment:

  1. विगत हो चला अब तो
    खत्म होने को है वह सत्र
    हर दिन हाथ मे होता था
    एक नया पत्र
    =====
    बहुत खूबसूरती से आपने मेरे मन के तारो को झनझना दिया

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