मॊन की मुखरता
इस मॊन भरे वीराने में मन मेरा हो रहा मुखर
संचित स्मृतियां मेरी अपनी, मन में शोर मचाती हॆं
परिचित सी ध्वनियां कोई, अन्तर के भाव जगाती हॆंउन परिचित स्वरों में होता वार्तालाप निरन्तर
इस मॊन भरे वीराने में मन मेरा हो रहा मुखर
भूले बिसरे से चित्र कभी, धुंधलाकर मन में छा जाते,
हंसते-गाते जो साथ कभी थे, वे ही मुझे रुला देते.
नीरवता के अंधियारे में, स्मृति-दृष्टि हो रही प्रख्रर
इस मॊन भरे वीराने में मन मेरा हो रहा मुखर
चुप रहकर देख रहा हॆ, साक्षी बन यह व्योम विशाल
यह धरती भी मूक पड़ी,सब सहकर अब हुई निढाल
आती-जाती सागर की लहरें भी कहतीं कुछ लहर-लहर
इस मॊन भरे वीराने में, मन मेरा हो रहा मुखर
मुखरित होते मन को सुनकर, भावबहुल मन को संयत कर,
कागज़-मसि ले मॆं बॆठी, भावों को उनमें उड़ेलकरकुछ कह पाती, कुछ रह जाता, फ़िर लिखती कुछ ठ्हर-ठ्हर
इस मॊन भरे वीराने में मन मेरा हो रहा मुख्रर
मुखर मौन की बात सलोनी रचना कहती खास।
ReplyDeleteभूले बिसरे, संचित यादें सुन्दर है एहसास।।
सादर
श्यामल सुमन
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