Wednesday, August 12, 2009

अपराधबोध - आशा बर्मन


अपनी पावन धरती को तज,
क्यों दूर देश में आये हम ?
जियें दोहरा जीवन कबतक ?
यह भी समझ न पाये हम ॥

जिन जीवनमूल्यों में जीते थे,
उनको फ़िर से रहे आंक।
क्या त्यागें. हम क्या अपनायें?
हम विमूढ़ से रहे ताक ॥

स्वदेश लौट्ने की योजना
सदैव स्थगित करते गये।
साथ ही एक अपराधबोध
मन में विकट भरते रहे॥


ऊपर से सम्पन्न सही,
अन्तर से निपट निर्धन।
हम इतने क्यों निरुपाय?
अपने प्रति यह है अन्याय॥


जब सारी सृष्टि का वह निर्माता,
हर देश का उससे ही नाता।
तो यह कैसा है विरोध?
कैसा यह अपराधबोध?


हम समझें निज को भाग्यवन्त,
दो संस्कृतियों को हमने जाना,
उनके गुण-अवगुण को
निकट से हमने पहचाना॥


हम भारत माता के कृतज्ञ,
जिसने हमें जन्म दिया।
इस विदेशभूमि ने भी
भरण-पोषण व शरण दिया॥


भारत ने सदा से ही
पोषक को सम्मान दिया ।
देवकीनंदन कृष्ण यशोदा का
बेटा भी कहलाया ॥


उभय संस्कृतियों के सौरभ से
नित निज जीवन को महकायें ।
अपराधभाव को त्याग,
मन में आत्मविश्वास जगायें॥

1 comment:

  1. आशा जी, १५ अगस्त के अवसर पर अच्छी कविता। मगर आखिरी की पंक्तियाँ पसंद आईं ज़्यादा। इस देश ने भी इतना कुछ दिया है कि कोई अपराध भावना नहीं रही है, स्वेच्छा से ही इस देश में आये हैं, और यहाँ रह कर अपने देश के लिये वो सब करने को तैयार हैं जो वहाँ रह रहे भारतीय शायद न कर पा रहे हों। भारतीय होने का गर्व है, पर यहाँ (विदेश में)रहने का मलाल नहीं।

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