Sunday, December 20, 2009

मन- आशा बर्मन


मन भटक रहा क्यों बार-बार?
यह मन ही सुख का स्रोत सदा
यह मन ही दुःख का बने द्वार॥
मन भटक रहा क्यों बार-बार?

बहुधा लगता मेरा जीवन
निश्चित सी इक परिपाटी पर,
बढ़्ता जाता ज्यों अनायास
गति लेकर सहज, सरल मन्थर॥

या चली कभी आँधी मन में
स्पष्ट न कुछ भी हो पाता,
सहसा अदॄश्य सा कोई आ,
उलझा सब डोर चला जाता॥

इस लाल चटक सी चूनर का
रह जाता है बस तार-तार।
मन भटक रहा क्यों बार-बार?

अपना सब प्राप्य लिया मैंने,
अपना कर्तव्य किया मैंने,
फ़िर क्यों कुछ कैसे छूट गया?
वह सूत्र कौन सा टूट गया?

जो मन को मेरे अनायास
कर देता है रह-रह उदास।
चुभता प्रश्नों का पैनापन
उर में लेकर नित नयी धार।
मन भटक रहा क्यों बार-बार?

अपने मन को समझाना है,
कुछ बातों से बहलाना है।
सकारात्मक भावों से
आशा का दीप जलाना है।।

मन ही उद्गम सब बातों का
उसको यह तथ्य बताना है॥
सीमित मन को विस्तृत कर
भर देना उसमें प्यार-प्यार॥
मन भटक रहा क्यों बार-बार?

4 comments:

  1. वाह...!
    बहुत सुन्दर गीत रचा है आपने!
    बधाई!

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  2. बहुत सुंदर आशा दी..

    नववर्ष आप सबको शुभ हो..
    सादर
    शैलजा

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  3. Taiji, one of the best pieces we have read simply awesome.
    love
    Paro

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  4. आशाजी ,
    अपने मन को समझाना है,
    कुछ बातों से बहलाना है।
    सकारात्मक भावों से
    आशा का दीप जलाना है।।

    आपने अत्यंत उचित बात उपरोक्त पंक्तियों में कही है |

    "चंचल : मन धावति" |
    डॉ. ग़ुलाम मुर्तज़ा शरीफ
    अमेरिका

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