Tuesday, November 10, 2009

हर कदम- आशा बर्मन


हर कदम रखने से पहले बार -बार मैं सोचती हूँ।

स्वार्थ जब अपना सधा, तो प्यार से मुझको बुलाया।
करके मीठी-मीठी बातें, मन में अपनापन जगाया ॥

मैंने जब अपनी कही, अनजान बन कर मुख फ़िराया,
अपने बोझिल मन को ले मैं, अश्रु बरबस पोछती हूँ।

हर कदम रखने से पहले, बार -बार मैं सोचती हूँ॥

सभी का विश्वास करके, सहज ही अपना बनाना।
अपनी तो तुम छोड़ ही दो, बहुत तुमको मैंने माना।।

मत भरोसा करो सबका, भूल करके मैंने जाना
हर किसी आहट पे अब मैं बार-बार क्यों चौकती हूँ ?

हर कदम रखने से पहले बार -बार मैं सोचती हूँ।।

मन मेरा हो चुका घायल, तन में किंचित दम नहीं है।
है लगी इक अगन मन, उत्साह फ़िर भी कम नहीं है॥

कोई तो होगा कहीं पर, समझ जो मुझको सकेगा,
उसी स्नेहिल दृष्टि को मैं, प्राणप्रण से खोजती हूँ ।

हर कदम रखने से पहले बार -बार मैं सोचती हूँ॥

3 comments:

  1. कोई तो होगा कहीं पर, समझ जो मुझको सकेगा,
    उसी स्नेहिल दृष्टि को मैं, प्राणप्रण से खोजती हूँ ।

    हर कदम रखने से पहले बार -बार मैं सोचती हूँ॥
    बहुत सुन्दर स्कारात्मक अभिव्यक्ति है शुभकामनायें

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  2. बहुत अच्छी रचना...........
    मन के मर्म तक पहुँच कर असर करने वाली कविता
    बधाई !

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  3. आशाजी,
    युग-युग से यही प्रश्न पूछा जा रहा है ...
    " क्या यही है अनुराग " ??
    डॉ. ग़ुलाम मुर्तज़ा शरीफ
    अमेरिका

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