Sunday, November 22, 2009

अभिशप्त- आशा बर्मन



अभिशप्त


पृथ्वी को केन्द्र मानकर,
चाँद उसके चारों तरफ़
घूमता रहता है।


और स्वयं पृथ्वी भी तो
विशाल विस्तृत पृथ्वी,
शस्य-श्यामला पृथ्वी ,
रत्नगर्भा पृथ्वी, सूर्य के
चारों ओर घूमती रहती है-
बाध्य सी,
निरीह सी,
अभिशप्त सी।


फ़िर भी,इस प्रकार
घूमते रहने में
एक क्रम है,
एक नियम है,
एक उद्देश्य है।
वे अभिशप्त से इसलिये
घूमते रहते हैं,
ताकि प्रकृति के नियम
समयानुसार बदलते रहें।
ऋतुओं के, दिनरात के क्रम
यथावत चलते रहें।


पर मनुष्य!
वह न तो इतना बाध्य है,
न इतना निरीह और
न ही इतना अभिशप्त ।


फ़िर वह क्यों
अहम को अपनी धुरी मानकर
उसकी परिधि में निरन्तर
तीव्र से तीव्रतर
उस दम तक
घूमता रहता है,
जबतक कि वह
बेदम होकर
गिर न पड़े ।

5 comments:

  1. बहुत उम्दा रचना...बधाई!!

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  2. sakaratmak soch ko paida karne wale vichar hai asha di..chitra bhi sunder hai..badhai

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  3. Bahut Acchi.Soye man ko jagane wali.

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  4. आशाजी ,
    आपके भाव अत्यधिक अमूल्य हैं |
    जिसमें "अहम् " आ गया उसका पतित होना अनिवार्य है |
    डॉ. ग़ुलाम मुर्तज़ा शरीफ
    अमेरिका

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