Friday, November 6, 2009

अपनेपन का संसार- आशा बर्मन

अपनों से जब दूर हुये, गैरों से मुझको प्यार मिला ।
गैर बने अब अपने से, अपनेपन का संसार मिला ॥

देश नया, परिवेश नया था, पर मन में सुख चैन कहां ?
तन से मेरा वास यहाँ था, मन मेरा दिन रैन वहाँ ॥

प्रेम का पाथेय मिला तो, जीने का आधार मिला ।
गैर बने अब अपने से, अपनेपन का संसार मिला ॥

रिश्ते ऐसे भी होते हैं, जिनको हम घुट-घुट जीते हैं।
रहते मुख से मौन सदा. पर घूँट गरल के पीते हैं ॥

है नसीब अपना- अपना,ऐसा न मुझे व्यवहार मिला ।
गैर बने अब अपने से, अपनेपन का संसार मिला ॥

प्रीत की डोरी में बँधकर हम, सुख-दुःख बाँटा करते हैं।
इस प्यार के खातिर जीते हैं, इस प्यार के खातिर मरते हैं॥

भावशून्य नीरस इस जग में, सुख का पारावार मिला।
गैर बने अब अपने से, अपनेपन का संसार मिला॥

1 comment:

  1. "गैर बने अब अपने से, अपनेपन का संसार मिला।" बहुत सही बात बहुत सुंदर ढँग से कह दी है आपने आशा दी,इसी अपनेपन को पाने के लिये हर आदमी भटकता है..बधाई कि आपने वह पाया।
    आपकी कविताओं में जीवन के प्रति संतुष्टि का परम भाव इतने सहज ढँग से दमकता है कि उससे उदासी भरे मन को जीवन की सकारात्मकता के लिये अनायास ही प्रेरणा मिलने लगती है।

    हरे-भरे जीवन की हरी भरी बात
    रहे धूप नेह की, आये न रात

    बधाई
    सादर
    शैलजा

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