Tuesday, June 11, 2013
Monday, August 16, 2010
हिन्दुस्तान की पहचान- आशा बर्मन

अपने हिन्दुस्तान की पहचान कहाँ है?
प्रातःकाल चरणस्पर्श है, न नमस्कार,
गुडमार्निंग की चहुंदिशि हो रही बौछार॥
जयरामजी को सुनने को तरस गये कान,
अपनी सभ्यता के नमन और प्रणाम कहाँ हैं ?
अपने हिन्दुस्तान की पहचान कहाँ है?
भारत में सुबह होगी, वहीं होगी शाम,
खायेंगे समोसे , जलेबी भरकर प्राण,
डबलरोटी, बिस्किट देखकर मैं निराश हुई।
हाय वे स्वदेशी जलपान कहाँ हैं ?
अपने हिन्दुस्तान की पहचान कहाँ है?
किसी के घर गये खाने को निमंत्रण,
वीसीआर पे देख रहे वे, अमिताभ बच्चन,
संकेत से कहा कि आप बैठ जाइये,
अतिथि के प्रति प्रेम और सम्मान कहाँ हैं ?
अपने हिन्दुस्तान की पहचान कहाँ है?
अंग्रेजी शिक्षा का हो रहा है माध्यम,
फ़ैशनपरस्ती में खो गया है सादापन,
पूर्व पर पश्चिम का चढ़ गया रंग,
इस समस्या का समाधान कहाँ है?
अपने हिन्दुस्तान की पहचान कहाँ है?
समाचारपत्र देख, मन हुआ अति प्रसन्न.
निज मातृभाषा हिन्दी में किया गया वर्णन,
हिंसा और आतंक पढ़्कर काँप गया मन,
और पूछ रहा अहिंसा का वरदान कहाँ है?
अपने हिन्दुस्तान की पहचान कहाँ है?
Wednesday, March 10, 2010
मैं और मेरी कविता- आशा बर्मन
Tuesday, January 26, 2010
प्रवासी की पीड़ा - आशा बर्मन

प्रवासी की पीड़ा
एक प्रश्न बादल सा बोझिल,मन में मेरे घिर-घिर आता,
प्रवास के इस जीवन में.क्या खोया, क्या मैंने पाया ?
त्योहारों पर माता का, प्यार भरा निमंत्रण पाना।
और विभिन्न बहानों से,साजन का अपने पास बुलाना॥
ऐसे मधुर प्रसंगों से, स्वयं को मैंने वंचित पाया
प्रवास के इस जीवन में.क्या खोया, क्या मैंने पाया ?
हास-परिहास देवरों के,नन्दों की मीठी फ़टकार ।
भाई-बहनों के उपालम्भ,जिनसे बरबस था झरता प्यार॥
ऐसी मीठी बातों का अवसर जीवन में कम आया ।
प्रवास के इस जीवन में.क्या खोया, क्या मैंने पाया ?
अपने बच्चों ने सच पूछो,नानी -दादी का प्यार न जाना।
बरसों पर मिले यदि तो, सबने उनको पाहुन ही माना॥
सब संग मिलकर रह पाने से,उनमें जो पड़ते संस्कार।
वे भला पनपते कैसे, उन्हें न मिला ठोस आधार॥
ऐसी-ऐसी कितनी बातें, कहाँ तक गिनाऊँ मैं ?
क्या खोया इस विषय का, ओर-छोर न पाऊँ मै॥
सहसा पत्रों से जब जाना, दूर बसे प्रियजन बीमार।
उनसे मिलने को व्याकुल मन,दूरी बनी विकट दीवार॥
और कभी प्रियजन को खोया चिरनिद्रा में, हो लाचार।
ऐसे अवसर पर प्रवास को मिला,सौ सौ बार धिक्कार॥
मन के घाव समय से भरते,पर ये न कभी भर पायेंगे?
इस खोने की गहराई को, क्या शब्द व्यक्त कर पायेंगे?
यदि जन्म-जन्मान्तर सच है,तो हे प्रभु यह वर देना,
देना जन्म उसी धरती पर, शाप प्रवास का हर लेना ॥
Sunday, December 20, 2009
मन- आशा बर्मन
मन भटक रहा क्यों बार-बार?
यह मन ही सुख का स्रोत सदा
यह मन ही दुःख का बने द्वार॥
मन भटक रहा क्यों बार-बार?
बहुधा लगता मेरा जीवन
निश्चित सी इक परिपाटी पर,
बढ़्ता जाता ज्यों अनायास
गति लेकर सहज, सरल मन्थर॥
या चली कभी आँधी मन में
स्पष्ट न कुछ भी हो पाता,
सहसा अदॄश्य सा कोई आ,
उलझा सब डोर चला जाता॥
इस लाल चटक सी चूनर का
रह जाता है बस तार-तार।
मन भटक रहा क्यों बार-बार?
अपना सब प्राप्य लिया मैंने,
अपना कर्तव्य किया मैंने,
फ़िर क्यों कुछ कैसे छूट गया?
वह सूत्र कौन सा टूट गया?
जो मन को मेरे अनायास
कर देता है रह-रह उदास।
चुभता प्रश्नों का पैनापन
उर में लेकर नित नयी धार।
मन भटक रहा क्यों बार-बार?
अपने मन को समझाना है,
कुछ बातों से बहलाना है।
सकारात्मक भावों से
आशा का दीप जलाना है।।
मन ही उद्गम सब बातों का
उसको यह तथ्य बताना है॥
सीमित मन को विस्तृत कर
भर देना उसमें प्यार-प्यार॥
मन भटक रहा क्यों बार-बार?
Sunday, December 13, 2009
बीते ऐसे दिन बहुतेरे - आशा बर्मन
Sunday, November 22, 2009
अभिशप्त- आशा बर्मन

अभिशप्त
पृथ्वी को केन्द्र मानकर,
चाँद उसके चारों तरफ़
घूमता रहता है।
और स्वयं पृथ्वी भी तो
विशाल विस्तृत पृथ्वी,
शस्य-श्यामला पृथ्वी ,
रत्नगर्भा पृथ्वी, सूर्य के
चारों ओर घूमती रहती है-
बाध्य सी,
निरीह सी,
अभिशप्त सी।
फ़िर भी,इस प्रकार
घूमते रहने में
एक क्रम है,
एक नियम है,
एक उद्देश्य है।
वे अभिशप्त से इसलिये
घूमते रहते हैं,
ताकि प्रकृति के नियम
समयानुसार बदलते रहें।
ऋतुओं के, दिनरात के क्रम
यथावत चलते रहें।
पर मनुष्य!
वह न तो इतना बाध्य है,
न इतना निरीह और
न ही इतना अभिशप्त ।
फ़िर वह क्यों
अहम को अपनी धुरी मानकर
उसकी परिधि में निरन्तर
तीव्र से तीव्रतर
उस दम तक
घूमता रहता है,
जबतक कि वह
बेदम होकर
गिर न पड़े ।
Tuesday, November 10, 2009
हर कदम- आशा बर्मन
हर कदम रखने से पहले बार -बार मैं सोचती हूँ।
स्वार्थ जब अपना सधा, तो प्यार से मुझको बुलाया।
मैंने जब अपनी कही, अनजान बन कर मुख फ़िराया,
हर कदम रखने से पहले, बार -बार मैं सोचती हूँ॥
सभी का विश्वास करके, सहज ही अपना बनाना।
मत भरोसा करो सबका, भूल करके मैंने जाना
हर किसी आहट पे अब मैं बार-बार क्यों चौकती हूँ ?
हर कदम रखने से पहले बार -बार मैं सोचती हूँ।।
मन मेरा हो चुका घायल, तन में किंचित दम नहीं है।
है लगी इक अगन मन, उत्साह फ़िर भी कम नहीं है॥
कोई तो होगा कहीं पर, समझ जो मुझको सकेगा,
उसी स्नेहिल दृष्टि को मैं, प्राणप्रण से खोजती हूँ ।
हर कदम रखने से पहले बार -बार मैं सोचती हूँ॥
Friday, November 6, 2009
अपनेपन का संसार- आशा बर्मन
गैर बने अब अपने से, अपनेपन का संसार मिला ॥
देश नया, परिवेश नया था, पर मन में सुख चैन कहां ?
तन से मेरा वास यहाँ था, मन मेरा दिन रैन वहाँ ॥
प्रेम का पाथेय मिला तो, जीने का आधार मिला ।
गैर बने अब अपने से, अपनेपन का संसार मिला ॥
रिश्ते ऐसे भी होते हैं, जिनको हम घुट-घुट जीते हैं।
रहते मुख से मौन सदा. पर घूँट गरल के पीते हैं ॥
है नसीब अपना- अपना,ऐसा न मुझे व्यवहार मिला ।
गैर बने अब अपने से, अपनेपन का संसार मिला ॥
प्रीत की डोरी में बँधकर हम, सुख-दुःख बाँटा करते हैं।
इस प्यार के खातिर जीते हैं, इस प्यार के खातिर मरते हैं॥
गैर बने अब अपने से, अपनेपन का संसार मिला॥